दानवीर कर्ण की अमर कहानी – महाभारत से एक प्रेरक प्रसंग

नमस्कार दोस्तों! आज हम सुनते हैं महाभारत के सबसे प्रेरक पात्रों में से एक, दानवीर कर्ण की एक सुंदर और मार्मिक कहानी।

कर्ण एक ऐसे वीर योद्धा थे, जिनके विषय में कहा जाता था कि वे कभी किसी याचक को खाली हाथ नहीं लौटाते थे। उनके दरबार में जो भी आता, उसे उसकी आवश्यकता अनुसार दान अवश्य मिलता। उनकी उदारता और दानशीलता की गाथाएं आज भी अमर हैं।

कर्ण का जन्म और पालन-पोषण

कर्ण का जन्म माता कुंती के गर्भ से हुआ था। दरअसल, कुंती ने दुर्वासा ऋषि की सेवा से प्रसन्न होकर एक वरदान प्राप्त किया था, जिसके माध्यम से वे किसी भी देवता का आवाहन कर पुत्र प्राप्त कर सकती थीं। जिज्ञासावश, कुंती ने सूर्य देव का आवाहन कर लिया और परिणामस्वरूप कर्ण का जन्म हुआ। परंतु अविवाहित अवस्था में संतान प्राप्त होने के भय से, उन्होंने नवजात कर्ण को एक टोकरी में रखकर नदी में प्रवाहित कर दिया।

यह टोकरी अधिरथ और उनकी पत्नी राधा को मिली। दोनों ने कर्ण को अपने पुत्र की तरह प्यार और संरक्षण दिया। इसलिए कर्ण को सूतपुत्र और राधेय भी कहा जाता है।

श्रीकृष्ण की नजर में दानवीर कर्ण

भगवान श्रीकृष्ण स्वयं भी कर्ण की दानशीलता की प्रशंसा करते थे। युधिष्ठिर और अर्जुन जैसे पुण्यशील योद्धा भी दान पुण्य करते थे, लेकिन श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार कर्ण की प्रशंसा की, वैसी किसी और की नहीं की।

एक दिन सभा में श्रीकृष्ण कर्ण की दानवीरता का बखान कर रहे थे। अर्जुन भी वहाँ उपस्थित थे। वे श्रीकृष्ण द्वारा कर्ण की लगातार की जा रही प्रशंसा को सहन नहीं कर पा रहे थे। श्रीकृष्ण ने अर्जुन की भावनाओं को भांप लिया और तय किया कि अर्जुन को स्वयं कर्ण की श्रेष्ठता का अहसास कराना होगा।

चंदन की लकड़ियों की परीक्षा

कुछ दिन बाद, नगर में एक ब्राह्मण की पत्नी का निधन हो गया। मरते समय उसकी अंतिम इच्छा थी कि उसका दाह संस्कार चंदन की लकड़ियों से किया जाए। दुखी ब्राह्मण सहायता मांगने अर्जुन के महल पहुँचा। अर्जुन ने तुरंत आदेश दिया कि चंदन की लकड़ियाँ लाई जाएं।

परंतु पूरे नगर और राजभंडार में कहीं भी चंदन की लकड़ियाँ उपलब्ध नहीं थीं। अर्जुन असहाय हो गए और ब्राह्मण को संतोष देने के सिवा उनके पास कोई उपाय नहीं रहा।

यह सब देख रहे श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण को सुझाव दिया कि वह कर्ण के दरबार जाए।

कर्ण की महानता

ब्राह्मण जैसे ही कर्ण के पास पहुँचा और अपनी व्यथा सुनाई, कर्ण ने बिना एक पल गंवाए अपना महल तक तुड़वा दिया, ताकि महल में प्रयुक्त चंदन की लकड़ी ब्राह्मण को दान दी जा सके। कर्ण ने अपने सुख, वैभव और शान की बिल्कुल भी परवाह नहीं की — उनके लिए याचक की जरूरत सबसे बड़ी थी।

कर्ण का यह महान त्याग देख अर्जुन को भी उनकी दानवीरता का वास्तविक अर्थ समझ में आ गया।


निष्कर्ष

कर्ण का जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्चा दान वह है, जो बिना किसी अपेक्षा और संकोच के दिया जाए। उनका त्याग, सहिष्णुता और करुणा आज भी हमें प्रेरणा देते हैं।

जय दानवीर कर्ण!

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